कहानी संग्रह >> विष्णु प्रभाकर की यादगारी कहानियां विष्णु प्रभाकर की यादगारी कहानियांविष्णु प्रभाकर
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विष्णु प्रभाकर की यादगार कहानियों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विष्णु प्रभाकर के जीवन पर गांधी जी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर
पड़ा। इसके चलते ही उनका रूझान कांग्रेस की ओर हुआ और स्वतंत्रता संग्राम
के महासागर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो
आज़ादी के लिए सतत संघर्षरत रही। अपने दौर के लेखकों में प्रेमचंद, यशपाल,
जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के
क्षेत्र में इनकी अपनी विशिष्ट पहचान रही। इनकी कहानियों में देशभक्ति,
राष्ट्रीयता और समाज के उत्थान का वास्तविक प्रतिबिम्ब झलकता है। इस संकलन
की विशेषता है कि इसमें धरती अब भी घूम रही है, अर्द्धनारीश्वर जैसी
कालजयी कहानियां भी संकलित हैं। सभी कहानियां मूल प्रामाणिक पाठ के साथ
प्रकाशित की गई हैं, ताकि पाठकों के साथ-साथ शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी
सिद्ध हों।
विष्णु प्रभाकर (21 जून 1912-11 अप्रैल 2009) का जन्म उप्र. के मीरामुर में हुआ था। इन्हें जीवन में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। 1931 में पहली कहानी छपने के साथ ही इन्होंने साहित्य सृजन करना शुरू किया और फिर जीवन भर कभी इनकी कलम थकी नहीं। शरतचंद्र की जीवनी ‘‘आवारा मसीहा’’ ने उन्हें हिन्दी साहित्य में विशिष्ट पहचान दिलाई।
विष्णु प्रभाकर (21 जून 1912-11 अप्रैल 2009) का जन्म उप्र. के मीरामुर में हुआ था। इन्हें जीवन में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। 1931 में पहली कहानी छपने के साथ ही इन्होंने साहित्य सृजन करना शुरू किया और फिर जीवन भर कभी इनकी कलम थकी नहीं। शरतचंद्र की जीवनी ‘‘आवारा मसीहा’’ ने उन्हें हिन्दी साहित्य में विशिष्ट पहचान दिलाई।
अनुक्रम
आस्था का द्वंद्व
प्रभा का गहनों से कभी प्रेम नहीं रहा, लेकिन इस हार के साथ एक पवित्र
भावना जुड़ी हुई है। नए घर के लिए विदा करते समय मां ने जब इस हार को उसके
गले में पहनाया तो रुंधे स्वर में कहा था, ‘‘बेटी, यह
हार बहुत भाग्यवान है। मेरी मां ने इसे पहना था, सदा राज करती रहीं। मैंने
पहनी, तू जानती ही है न, सही पैसा, प्यार की कमी नहीं रही घर में। तू इसे
पहनकर वैसा ही प्यार बटोरती रहे, यही मेरी कामना
है...।’’
और सुहागरात को उनकी दृष्टि सबसे पहले इसी हार पर गई थी। उच्छ्वसित स्वर में बोले थे, ‘‘अहा ! कितना सुन्दर है यह हार। कितना सादा, पर तुम्हारे रूप को कैसे उजास से भर दिया है इसने...।’’
और वह भर उठी थी उस प्रथम क्षण के उनके प्यार से। आज तक भरी-भरी है सारी बाधाओं के बावजूद...।
लेकिन पिछले हफ्ते जब उन्होंने आकर कहा, ‘‘कोई रास्ता नहीं। पांच हजार रुपए देने ही होंगे।’’ तब कैसा-कैसा हो आया था उसका मन। देर तक खाली-खाली आंखों से देखती रही थी पति की ओर। हार को जाना है, चला जाए, पर किसी अच्छे उद्देश्य के लिए जाए, अन्यथा और उत्पीड़न की राह क्यों जाए...।
विपिन के मन में भी यह प्रश्न उभरता है, पर वह जानता है कि उस हार को बेचे बिना निष्कृति नहीं है। उधार उसने कभी मांगा नहीं। सीमित आय में से जो कुछ बच पाता है, उसे बेटी के विवाह के फंड में जमा करता रहता है। जमीन का एक छोटा सा प्लॉट लिया था कभी। बैंक से उधार लेकर, उसकी किस्तें जमा करानी होती हैं। फिर बैंक की किस्तें, बच्चों की शिक्षा, हारी-बीमारी, क्या करे मध्यवर्ग का व्यक्ति...।
बड़ा बेटा अरविन्द कमाने लगा है, पर उससे उसके अपने परिवार का ही पूरा नहीं पटता। और उसी बेटे को लेकर ही तो यह संकट है। दो वर्ष पूर्व अपने एक मित्र के साथ उसने कोई कारोबार किया था। उनके कार्यालय के साथ, सर्वसुविधा सम्पन्न एक अतिरिक्त कमरा भी था। कारोबार से सम्बद्ध व्यक्ति ही उसमें ठहरते थे, पर खाली होता तो कभी-कभी कोई अन्य मित्र भी उसका लाभ ले लेते थे। ऐसे ही किसी समय विपिन के एक मित्र के लन्दनवासी भाई उसमें ठहरे होंगे। पुलिस ने जब खोज निकाला कि वे सज्जन तस्करी का धन्धा करते थे। उन्होंने हवाई जहाज से कुछ वर्जित सामान भेजना चाहा था। वह पकड़ा गया। किसने किसको दिया, कोई नहीं जानता, पर अनुमान यह है कि यह काम उन्हीं का रहा होगा और वे उस कमरे में ठहरे थे। तब हो सकता है, उसमें अरविन्द की फर्म का भी हाथ हो...।
यह ‘हो सकता’ ही बार-बार पुलिस को अरविन्द तक ले आता था। वह कुछ भी नहीं जानता। न जाने, पर पुलिस तो मार-मारकर कबूल करवा ले ही सकती है। आंखों देखे गवाह हर कदम पर बिखरे पड़े हैं। राजा राज करे, प्रजा राज करे, व्यवस्था वही रहती है...।
बहुत पता लगाने पर विपिन के एक मित्र के भाई सहायता करने के लिए तैयार हुए। कई दिनों की दौड़-धूप के बाद उन्होंने सूचना दी कि अरविन्द का नाम उस मामले से हटवाने की फीस पांच हजार रुपए हैं।
‘‘पांच हजार !’’ विपिन कांप उठा था।
‘‘किस बात के पांच हजार ?’’ प्रभा ने क्रुद्ध स्वर में पूछा था।
मित्र के भाई ने स्पष्ट कहा था, ‘‘क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारा बेटा वहां जाए और वे उसे तरह-तरह की यातनाएं देकर उससे कबूल करवा लें और वर्षों मुकदमा चले। मैं जानता हूं, सबूत के अभाव में वह अन्ततः छूट जाएगा, पर तब तक तुम सब आर्थिक और मानसिक दृष्टि से जर्जर हो चुके होंगे।’’
उस सन्ध्या को प्रभा को पहली बार अपने इष्टदेव पर क्रोध आया, ‘‘यह कैसा न्याय है तेरा ? बेकसूर को सजा मिलती है और कुर्सी पर बैठनेवाले को हर गुनाह करने की छूट है। यही है क्या जनता का राज....?’’
पर इष्टदेव तो बोलते नहीं। बोली उसकी एक धर्मभीरू सहेली, ‘‘कैसी बातें करती है तू। प्रभू कभी अन्याय नहीं करते। तूने या तेरे उन्होंने पिछले जन्म में जरूर कोई बड़ा पाप किया होगा। उसी की सजा मिल रही है यह....।’’
‘‘हां, किए ही होंगे बहना, तभी तो जनता के राज्य में भी यह धांधली है।’’
उसने प्रतिवाद नहीं दिया था तब, पर उसका मन बार-बार कराह उठता था। बार-बार प्रश्न करना चाहता था, पर ऐसे अवसरों पर मात्र प्रभु ही नहीं, सारी व्यवस्था गूंगी हो जाती है।
उस रात उसने संजो के रखे उस हार को बार-बार ललचाई आंखों से देखा। विभिन्न कोणों से पहनकर शीशे में अपनी छवि पर स्वयं ही मुग्ध हुई। फिर धीरे-धीरे से उसे सहलाया। निरन्तर सोचती रही–इसे मेरी नानी ने पहना था, मेरी मां ने पहना था, मैंने पहना। अब मेरी साध थी कि मेरी छोटी पहने, लेकिन...।
उसकी आंखों से सहसा टप-टप आंसू टपक पड़े। उसने तीव्रता से अनुभव किया कि उसके पति का हाथ बहुत खुला रहा है। जिसने मांगा, उसे पैसा दे दिया। बचाकर रखते तो क्या पांच हजार के लिए हार बेचने की नौबत आती... ?
उस दिन न जाने कहां से वह प्रोफेसर सदारमाणी आ गए थे। कैसी मीठी-मीठी बातें कर रहे थे। विपिन की कहानियों की प्रशंसा करते थकते न थे। उसके अनेक मित्रों से उन्होंने अपनी घनिष्ठता बताई थी। जब जाने को उठे थे, तभी साधारण भाव से उन्होंने कहा था, ‘‘कहते डरता हूं, कहीं आप गलत न समझें...।’’
विपिन ने कहा, ‘‘कहिए न। क्या सेवा कर सकता हूं आपकी ?
‘‘जी, मैं बम्बई से आ रहा हूं। मार्ग में सबकुछ चोरी चला गया। किराया तक नहीं है कलकत्ता जाने का। आप यदि कृपा कर सौ रुपए उधार दे सकें...।’’
‘‘सौ रुपए उधार चाहते हैं आप ?’’
‘‘मैं कलकत्ता पहुंचते ही मनीऑर्डर कर दूंगा। विपदा सब पर पड़ती है।’’
‘‘जी हाँ, विपदा सब पर पड़ती है।’’ यह कहते हुए विपिन ने अन्दर से लाकर सौ का नोट उन्हें थमा दिया था।
प्रोफेसर सादरमणि विनम्रता से झुककर बोले थे, ‘‘मैं आपका यह एहसान जीवन भर न भूल पाऊंगा। मैं अपना पता लिख दे रहा हूं। कभी आइएगा।’’
और वे पता लिखकर चले गए थे, कभी न लौटने के लिए। एक माह राह देखकर पत्र लिखा विपिन ने। पन्द्रह दिनों के बाद दूसरा, फिर तीसरा तब कहीं पहला पत्र लौटकर आया, इस सूचना के साथ कि इस पते पर इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता। मित्रों को लिखा तो पता लगा कि वह पेशेवर ठग है...।
प्रभा ने मुस्कराकर इतना ही कहा था, ‘‘कुल मिलाकर कितनी बार हुआ। कुछ तो सीखिए।’’
विपिन का हर बार यही उत्तर होता था, ‘‘देखो प्रभा डियर। कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं, जहां अशिक्षित बने रहना ही अच्छा होता है।’’
प्रभा चिढ़ जाती, ‘‘आपसे पार पाना असम्भव है।’
और तो और, गली का चिरपरिचित मोची बलदेव आ धमका उस दिन। हाथ जोड़कर बोला, ‘बाबू साहब। एक अर्ज है।’
‘कहो।’
‘मेरी भतीजी की शादी है। भाई है नहीं। आप सौ रुपए उधार दे दें तो....।’’
‘‘सौ रुपए उधार, तुम्हें.....।’’
‘‘हां माई-बाप। मैं चुका दूंगा सब। पाई-पाई दूंगा।’’
और उसका गला रुंध गया। विपिन जानता है कि बलदेव बुरा आदमी नहीं है। होंगे तो चुका भी सकता है। और काम तो करता ही है, कटते रहेंगे। उसने रुपए दे दिए। फिर शादी के बाद सदा की तरह काम की मजूरी मांगने आया तो विपिन ने कहा, ‘‘तुम्हारी मजूरी तुम्हारे कर्ज में कटती रहेगी।’’
वह गिड़गिड़िया, ‘‘नहीं माई-बाप ऐसा न कीजिए। मैं खाऊंगा क्या ? मैं कुछ और काम करूंगा। उसमें से...।’’
लेकिन कुछ दिनों के बाद वह ऐसा गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग....
प्रभा ने तब कैसा तांसा था विपिन को, ‘‘कहते रहते हो कि छोटे लोग ईमानदार होते हैं। छोटे लोग धोखा नहीं देते। छोटे लोगों का दिल साफ होता है। अब देख लिया छोटे लोगों को भी। वह है न जमादारिन, लेकर देने का नाम नहीं लेती।’’
विपिन ने धीरे से इतना ही कहा था, ‘‘तुम्हारे धर्मशास्त्र के अनुसार कर्जा लिया होगा, उनसे पिछले जन्म में। वही चुका रहा हूं। उनको क्यों दोष देती हो...।’’
एक-एक करके न जाने कितनी घटनाएं उसके मस्तिष्क के पटल पर उभरती रहीं, मिटती रहीं, और वह सोचती रही कि इनमें से कुछ परजीवी हो सकते हैं, कुछ विवश भी हो सकते हैं पर ये पुलिसवाले, ये कुरसी पर बैठे लोग...ये जनता के सेवक, ये तो हमारे रक्षक हैं। ये भी निर्दोषों को सताएंगे तो...।
तभी न जाने कहां से आकर विपिन वहां आ खड़ा हुआ, बोला, ‘‘बहुत दुःख हो रहा है न।’’
चौंककर उसने पति की ओर देखा, जैसे वहां विपिन न हो, उसकी बेटी दुलहन बनी खड़ी हो और वह दोनों हाथों में हार लिए उसे पहनाना चाहती हो। तभी कोई राक्षस गिद्ध बनकर आसमान से उतरे और झपटकर उड़ जाए....।
नहीं-नहीं, यह हार उसकी बेटी की धरोहर है। मां-बाप को बेटी की धरोहर बेचने का कोई अधिकार नहीं होता...।
और सुहागरात को उनकी दृष्टि सबसे पहले इसी हार पर गई थी। उच्छ्वसित स्वर में बोले थे, ‘‘अहा ! कितना सुन्दर है यह हार। कितना सादा, पर तुम्हारे रूप को कैसे उजास से भर दिया है इसने...।’’
और वह भर उठी थी उस प्रथम क्षण के उनके प्यार से। आज तक भरी-भरी है सारी बाधाओं के बावजूद...।
लेकिन पिछले हफ्ते जब उन्होंने आकर कहा, ‘‘कोई रास्ता नहीं। पांच हजार रुपए देने ही होंगे।’’ तब कैसा-कैसा हो आया था उसका मन। देर तक खाली-खाली आंखों से देखती रही थी पति की ओर। हार को जाना है, चला जाए, पर किसी अच्छे उद्देश्य के लिए जाए, अन्यथा और उत्पीड़न की राह क्यों जाए...।
विपिन के मन में भी यह प्रश्न उभरता है, पर वह जानता है कि उस हार को बेचे बिना निष्कृति नहीं है। उधार उसने कभी मांगा नहीं। सीमित आय में से जो कुछ बच पाता है, उसे बेटी के विवाह के फंड में जमा करता रहता है। जमीन का एक छोटा सा प्लॉट लिया था कभी। बैंक से उधार लेकर, उसकी किस्तें जमा करानी होती हैं। फिर बैंक की किस्तें, बच्चों की शिक्षा, हारी-बीमारी, क्या करे मध्यवर्ग का व्यक्ति...।
बड़ा बेटा अरविन्द कमाने लगा है, पर उससे उसके अपने परिवार का ही पूरा नहीं पटता। और उसी बेटे को लेकर ही तो यह संकट है। दो वर्ष पूर्व अपने एक मित्र के साथ उसने कोई कारोबार किया था। उनके कार्यालय के साथ, सर्वसुविधा सम्पन्न एक अतिरिक्त कमरा भी था। कारोबार से सम्बद्ध व्यक्ति ही उसमें ठहरते थे, पर खाली होता तो कभी-कभी कोई अन्य मित्र भी उसका लाभ ले लेते थे। ऐसे ही किसी समय विपिन के एक मित्र के लन्दनवासी भाई उसमें ठहरे होंगे। पुलिस ने जब खोज निकाला कि वे सज्जन तस्करी का धन्धा करते थे। उन्होंने हवाई जहाज से कुछ वर्जित सामान भेजना चाहा था। वह पकड़ा गया। किसने किसको दिया, कोई नहीं जानता, पर अनुमान यह है कि यह काम उन्हीं का रहा होगा और वे उस कमरे में ठहरे थे। तब हो सकता है, उसमें अरविन्द की फर्म का भी हाथ हो...।
यह ‘हो सकता’ ही बार-बार पुलिस को अरविन्द तक ले आता था। वह कुछ भी नहीं जानता। न जाने, पर पुलिस तो मार-मारकर कबूल करवा ले ही सकती है। आंखों देखे गवाह हर कदम पर बिखरे पड़े हैं। राजा राज करे, प्रजा राज करे, व्यवस्था वही रहती है...।
बहुत पता लगाने पर विपिन के एक मित्र के भाई सहायता करने के लिए तैयार हुए। कई दिनों की दौड़-धूप के बाद उन्होंने सूचना दी कि अरविन्द का नाम उस मामले से हटवाने की फीस पांच हजार रुपए हैं।
‘‘पांच हजार !’’ विपिन कांप उठा था।
‘‘किस बात के पांच हजार ?’’ प्रभा ने क्रुद्ध स्वर में पूछा था।
मित्र के भाई ने स्पष्ट कहा था, ‘‘क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारा बेटा वहां जाए और वे उसे तरह-तरह की यातनाएं देकर उससे कबूल करवा लें और वर्षों मुकदमा चले। मैं जानता हूं, सबूत के अभाव में वह अन्ततः छूट जाएगा, पर तब तक तुम सब आर्थिक और मानसिक दृष्टि से जर्जर हो चुके होंगे।’’
उस सन्ध्या को प्रभा को पहली बार अपने इष्टदेव पर क्रोध आया, ‘‘यह कैसा न्याय है तेरा ? बेकसूर को सजा मिलती है और कुर्सी पर बैठनेवाले को हर गुनाह करने की छूट है। यही है क्या जनता का राज....?’’
पर इष्टदेव तो बोलते नहीं। बोली उसकी एक धर्मभीरू सहेली, ‘‘कैसी बातें करती है तू। प्रभू कभी अन्याय नहीं करते। तूने या तेरे उन्होंने पिछले जन्म में जरूर कोई बड़ा पाप किया होगा। उसी की सजा मिल रही है यह....।’’
‘‘हां, किए ही होंगे बहना, तभी तो जनता के राज्य में भी यह धांधली है।’’
उसने प्रतिवाद नहीं दिया था तब, पर उसका मन बार-बार कराह उठता था। बार-बार प्रश्न करना चाहता था, पर ऐसे अवसरों पर मात्र प्रभु ही नहीं, सारी व्यवस्था गूंगी हो जाती है।
उस रात उसने संजो के रखे उस हार को बार-बार ललचाई आंखों से देखा। विभिन्न कोणों से पहनकर शीशे में अपनी छवि पर स्वयं ही मुग्ध हुई। फिर धीरे-धीरे से उसे सहलाया। निरन्तर सोचती रही–इसे मेरी नानी ने पहना था, मेरी मां ने पहना था, मैंने पहना। अब मेरी साध थी कि मेरी छोटी पहने, लेकिन...।
उसकी आंखों से सहसा टप-टप आंसू टपक पड़े। उसने तीव्रता से अनुभव किया कि उसके पति का हाथ बहुत खुला रहा है। जिसने मांगा, उसे पैसा दे दिया। बचाकर रखते तो क्या पांच हजार के लिए हार बेचने की नौबत आती... ?
उस दिन न जाने कहां से वह प्रोफेसर सदारमाणी आ गए थे। कैसी मीठी-मीठी बातें कर रहे थे। विपिन की कहानियों की प्रशंसा करते थकते न थे। उसके अनेक मित्रों से उन्होंने अपनी घनिष्ठता बताई थी। जब जाने को उठे थे, तभी साधारण भाव से उन्होंने कहा था, ‘‘कहते डरता हूं, कहीं आप गलत न समझें...।’’
विपिन ने कहा, ‘‘कहिए न। क्या सेवा कर सकता हूं आपकी ?
‘‘जी, मैं बम्बई से आ रहा हूं। मार्ग में सबकुछ चोरी चला गया। किराया तक नहीं है कलकत्ता जाने का। आप यदि कृपा कर सौ रुपए उधार दे सकें...।’’
‘‘सौ रुपए उधार चाहते हैं आप ?’’
‘‘मैं कलकत्ता पहुंचते ही मनीऑर्डर कर दूंगा। विपदा सब पर पड़ती है।’’
‘‘जी हाँ, विपदा सब पर पड़ती है।’’ यह कहते हुए विपिन ने अन्दर से लाकर सौ का नोट उन्हें थमा दिया था।
प्रोफेसर सादरमणि विनम्रता से झुककर बोले थे, ‘‘मैं आपका यह एहसान जीवन भर न भूल पाऊंगा। मैं अपना पता लिख दे रहा हूं। कभी आइएगा।’’
और वे पता लिखकर चले गए थे, कभी न लौटने के लिए। एक माह राह देखकर पत्र लिखा विपिन ने। पन्द्रह दिनों के बाद दूसरा, फिर तीसरा तब कहीं पहला पत्र लौटकर आया, इस सूचना के साथ कि इस पते पर इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता। मित्रों को लिखा तो पता लगा कि वह पेशेवर ठग है...।
प्रभा ने मुस्कराकर इतना ही कहा था, ‘‘कुल मिलाकर कितनी बार हुआ। कुछ तो सीखिए।’’
विपिन का हर बार यही उत्तर होता था, ‘‘देखो प्रभा डियर। कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं, जहां अशिक्षित बने रहना ही अच्छा होता है।’’
प्रभा चिढ़ जाती, ‘‘आपसे पार पाना असम्भव है।’
और तो और, गली का चिरपरिचित मोची बलदेव आ धमका उस दिन। हाथ जोड़कर बोला, ‘बाबू साहब। एक अर्ज है।’
‘कहो।’
‘मेरी भतीजी की शादी है। भाई है नहीं। आप सौ रुपए उधार दे दें तो....।’’
‘‘सौ रुपए उधार, तुम्हें.....।’’
‘‘हां माई-बाप। मैं चुका दूंगा सब। पाई-पाई दूंगा।’’
और उसका गला रुंध गया। विपिन जानता है कि बलदेव बुरा आदमी नहीं है। होंगे तो चुका भी सकता है। और काम तो करता ही है, कटते रहेंगे। उसने रुपए दे दिए। फिर शादी के बाद सदा की तरह काम की मजूरी मांगने आया तो विपिन ने कहा, ‘‘तुम्हारी मजूरी तुम्हारे कर्ज में कटती रहेगी।’’
वह गिड़गिड़िया, ‘‘नहीं माई-बाप ऐसा न कीजिए। मैं खाऊंगा क्या ? मैं कुछ और काम करूंगा। उसमें से...।’’
लेकिन कुछ दिनों के बाद वह ऐसा गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग....
प्रभा ने तब कैसा तांसा था विपिन को, ‘‘कहते रहते हो कि छोटे लोग ईमानदार होते हैं। छोटे लोग धोखा नहीं देते। छोटे लोगों का दिल साफ होता है। अब देख लिया छोटे लोगों को भी। वह है न जमादारिन, लेकर देने का नाम नहीं लेती।’’
विपिन ने धीरे से इतना ही कहा था, ‘‘तुम्हारे धर्मशास्त्र के अनुसार कर्जा लिया होगा, उनसे पिछले जन्म में। वही चुका रहा हूं। उनको क्यों दोष देती हो...।’’
एक-एक करके न जाने कितनी घटनाएं उसके मस्तिष्क के पटल पर उभरती रहीं, मिटती रहीं, और वह सोचती रही कि इनमें से कुछ परजीवी हो सकते हैं, कुछ विवश भी हो सकते हैं पर ये पुलिसवाले, ये कुरसी पर बैठे लोग...ये जनता के सेवक, ये तो हमारे रक्षक हैं। ये भी निर्दोषों को सताएंगे तो...।
तभी न जाने कहां से आकर विपिन वहां आ खड़ा हुआ, बोला, ‘‘बहुत दुःख हो रहा है न।’’
चौंककर उसने पति की ओर देखा, जैसे वहां विपिन न हो, उसकी बेटी दुलहन बनी खड़ी हो और वह दोनों हाथों में हार लिए उसे पहनाना चाहती हो। तभी कोई राक्षस गिद्ध बनकर आसमान से उतरे और झपटकर उड़ जाए....।
नहीं-नहीं, यह हार उसकी बेटी की धरोहर है। मां-बाप को बेटी की धरोहर बेचने का कोई अधिकार नहीं होता...।
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